एक नए उत्साह के साथ ये पत्र आपने खोला होगा। ये जानते हुए की इसका मन ही मन इंतज़ार (बेशक़ चेतन भाव से नहीं) कुछ अरसे से हो रहा था। इसका कारण ये नहीं कि ऐसा कोई ख़याल या वाकया नहीं हुआ जो बताने योग्य नहीं था। दरअसल ऐसा बहुत कुछ था और जिसे व्यक्त ना करने का मलाल शायद उम्र भर रहे। बहरहाल वो जो था वो था अब नहीं। मालूम नहीं आपने कभी गौर किया या नही कि हर बार मैं एक सामूहिक पत्र लिखता आया हूँ। जो एक नज़रिए से सोचा जाए तो नीजी रूप से एक मात्र आपही के लिए नहीं लिखा गया। यकीं माने या ना माने पर मेरी कभी कोई ऐसी मंशा नहीं रही। शायद मेहनत से कतरा के मैंने ये साव्रजनिक तरीका अपनाया हो। क्यूंकि ये मानते हुए मुझे कोई भी ऐतेराज़ नहीं कि कई ऐसी बातें थीं जो की मूल रूप से मैं आपही को बताना पसंद करता। प्रश्न ये नहीं की वो बातें क्या थीं? प्रश्न ये है की मैंने उन बातों का क्या किया? अपने तक ही उन्हें रख कर ख्यालों के अथाह सागर मैं बह जाने दिया या उन्हें एक श्रेष्ठ विचार मैं तब्दील करके सार्वजनिक रूप में आपके सामने पेश किया? मैं दावे के साथ नहीं कह सकता मैंने क्या किया, हालांकि मैं दूसरा विकल्प सोचकर अपने आपको खुश करना चाहता हूँ पर असल में दोनों ही विकल्प सहीं हैं। इस बार मैं इन्ही दो ख़यालों के ज़रिये आपको अपनी वर्तमान में चल रही मनोवास्था से होकर मेरे अनुसार जीवन के असीम महत्व रखने वाले अभिप्राय के सफ़र पर ले जाऊंगा (हालांकि आप चाहें तो अलग नज़रिया रखने के लिए बिलकुल आज़ाद हैं)। पर जैसा की आप जानते ही होंगे कि कोई भी ऊँचाई ज़मीन से ही नापी जाती है, उसी तरह किसी भी नज़रिए को एक लौता विकल्प मान लेना ठीक नहीं होगा और वो तो और दुसरे नज़रियों के साथ ज्यादती होगी जो की आपसे कुछ नहीं बस एक नज़र मांग रहे हैं।
ज़्यादातर हर इंसान आज की भौतिक दुनिया में एक लक्ष्य रखता है। हालांकि कई होंगे जिन्हे ऊपरी तौर से देखा जाए तो लक्ष्हीन नज़र आयें, लेकिन बारीकी से देखा जाए तो हर रोज़ अपने जीवन को संरक्षित करना भी एक लक्ष्य ही है (निजी रूप से मैं कहूंगा की एक मात्र सरंक्षित रहने का लक्ष्य रखना मात्र एक वस्तु की भाँती मजूद होना है, जीना नहीं)। भौतिकता से जुड़ा जो लक्ष्य है उसे मैं नाम दूंगा ‘व्यवसायिक लक्ष्य‘। जो की ज़रूरी प्रेरणा होने के साथ साथ हमें ज़िन्दगी के उतार चढ़ाव को झेलने की क्षमता भी देता है। इसी के फलस्वरूप हम अपने दिमाग़ को केन्द्रित भी कर पाते हैं। समस्त जीवन गुज़ारने के लिए ये एक मात्र लक्ष्य काफ़ी है। इससे पहले के आपके ज़हन मैं कुछ सवाल खड़े हों मैं बता देता हूँ की मेरा ये निरिक्षण सिर्फ़ उसी व्यवसायिक लक्ष्य पर लागू होता है जो आपने अपनी मर्ज़ी से अपनी इच्छा अनुसार, अपनी क़ाबलियत को नज़र में रखते हुए चुना। बावजूद इसके कई बार अकस्मात् किसी दिन के किसी पहर में न जाने कई ऐसे ख़याल उमड़ आते हैं जो आपको अधूरा महसूस करा देते हैं। वो वही ख़याल हैं जो आकर नज़रंदाज़ होकर सोच के अथाह सागर में ग़ुम हो जाया करते हैं। उन बदनसीब ख़्यालों को श्रेष्ठ विचार कहलाने का सौभाग्य कभी प्राप्त नहीं हुआ। कहने का अभिप्राय ये है की हमारा जीवन कुछ नहीं बस किन्ही भौतिक कारणों से प्रभावित हुई हमारी सोच का नतीजा है। कहा जा सकता है की मेरा ये कहना भी आपकी सोच को प्रभावित करने का नतीजा है लेकिन ये जायज़ भी तो है क्यूंकि मेरी दुनिया में (अगर माना जाए की मैं अपनी ज़िन्दगी का केद्र हूँ और बाकी सब उसके इर्द गिर्द घूमते जीवद्रव्य) आप मेरे लिए हैं मैं आपके लिए नहीं। स्सफ शब्दों मैं कहा जाए तो ‘मैं हूँ‘ इसलिए आप हो और अगर मैं ना होता तो आपके लिए मैं और मेरे लिए आप ना होते। और अगर ये सच है तो मैं कसी के प्रति जवाबदेह नहीं। भूत और भविष्य का मेरे इस यथार्थ से कोई लेना देना नहीं। नैतिकता की नयी परिभाषा का स्तम्भ है ‘आपका मूल स्वभाव‘। और यहाँ से बात आ जाती है आपके स्वाभाविक लक्ष्य की जो की जीवन संरक्षण से परे है, जो की किसी नैतिकता या अनैतिकता के अधीन नहीं, जो की विश्वास और श्रधा पर टिका नहीं, जो की प्राकृतिक या अप्राकृतिक परिस्थितियों का मोहताज नहीं। जिसमे सब जायज़ है और कुछ गलत नहीं
जो क़िस्मत और भाग्य द्वारा नियंत्रित नहीं। स्वाभाविक लक्ष्य की कोई दिशा नहीं और नाही पहले से तय किया गया रास्ता जो इसकी तरफ़ ले जाए। इसपर चलने का हौसला ख़ुद–ब–ख़ुद ये है, इसे बाहरी प्रेरणा की कोई आवश्यकता नहीं। किन्ही इंसानों के चिंतनशील स्वभाव ने जीवन को आसाम्न्य रूप से पेचीदा बना दिया है। अगर इसे ग़लत माना जाए तो विडम्बना ये रही को वो कुछ लोग ख्याति प्राप्त कर गए। गर ऐसा ना हुआ होता तो शायद ज़िन्दगी विचित्र होते हुए भी उतनी ही सहेज होती जितनी कभी बचपन में हुआ करती थी। पर अफ़सोस ऐसा ना हो पाया। उस विचित्रता ने हमारी आँखों पर सहेजता की पट्टी बांधकर ऐसे मुकाम पर हमें खड़ा कर दिया जहां ना वो पट्टी उतारते बनता या पहनते। अंजाम हुआ सम्पूर्ण अव्यवस्था। इस कोलाहल से बचने के लिए इंसान तीन तरह के दृष्टिकोणों में बट गया। एक जो इच्छानुसार अनभिज्ञता को एक महत्वपूर्ण खोज मानकर संतुष्ट हो गए। ऐसे लोग देखा जाए तो बहुत कम मिलेंगे, हालांकि आसानी से इन लोगों को उन लोगों की तुलना में सम्मिलित किया जा सकता है जो की कहीं बीच मैं फंस कर रह गए हों, ऐसे लोगों के पाऊँ दोनों कश्ती पर सवार रहते हैं। एक तरफ़ वो सामाजिक तथ्यों पर यकीं कर उसके अनुकूल चलते हैं और साथ ही साथ कभी कभार उन्ही सदियों से चलती प्रथाओं पर कुछ देर के लिए ही सही पर सवाल ज़रूर उठाते हैं। और हाँ! वैसे ये दूसरी बिरादरी है। याद रखने वाली बात ये है की ये लोग कभी भी ऐसा ख़याल करने के बाद उसके विषय मैं कुछ नहीं करते। तीसरी बिरादरी है उन व्यक्तियों की जो परितोष की राह त्याग कर एक चिंतनशील, फलस्वरूप एक मुश्किल और अनिश्चित राह पकड़ते हैं। उस राह का कोई निर्धारित लक्ष्य नहीं होता, और अगर होता भी होगा तो उसका अनुमान तक नहीं लगाया जा सकता। मात्र इतना निश्चित रूप मैं कहा जा सकता है की उस राह का ही नाम होता है ‘मूल स्वाभाविकता‘! एक श्रेष्ठ अनिर्धारित लक्ष्य की ओर ये उड़ान अकेले ही तय की जा सकती है। पर उससे पहले कुछ ज़रूरी विशिष्टताएं हैं जो आपको ये रास्ता चुनने के योग्य बनाती हैं।
पर अफ़सोस उन विशिष्टताओं को शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता। ना ही उन्हें पाया जा सकता है। वो सभी के अन्दर मौजूद हैं पर कुछ दुर्भाग्यशाली लोगों का ही उनसे पाला पड़ता है। दुर्भाग्यशाली इसलिए क्यूंकि वे लोग कभी फिर इस ज़िन्दगी का आनंद नहीं उठा पाते। अनभिज्ञता की चादर उनकी आँखों से हट जाती है और वो पीड़ा मैं लुत्फ़ उठाने लगते हैं। अलगाव और बोरियत में उन्हें जितनी ख़ुशी मिलती है उसका अनुमान लगाना आशावादी लोगों के लिए मुमकिन नहीं। दुनिया की तमाम असफलताओं, निराशा, अनहोनियों और प्रताड़ना को ज़हन मैं रखकर आप यदि उससे भरपूर एक ज़िन्दगी का अनुमान लगा सकते हैं ओ जी हाँ मैं वैसी ज़िन्दगी जीते कुछ लोगों की बात कर रहा हूँ। उसे दुर्भाग्यशाली जीवन कहना एक विडंबना है क्यूंकि जितना प्रयत्न कर लिया जाए एक ऐसे नज़रिए को जानना असंभव है जिसकी तह तो दूर हम बाहरी परत को भी नहीं चुन सकते। ये विडंबना ही है की हम उस जीवन, उस सोच के बारे मैं कुछ नहीं जानते इसलिए मजबूरन अपनी इस नाकाबलियत को छुपाने के लिए हम उसे कोई दर्जा देना ही ज़रूरी नहीं समझते। मेरा दुर्भाग्य कहिये या पारदर्शिता पर मैंने उस जीवन की कल्पना की है, उसे देखने मैं सफल रहा हूँ, उसे महसूस किया और कुछ हद तक उसे जीने का भी प्रयत्न कर रहा हूँ (हालांकि उसमे सफल नहीं हो पा रहा, सच मैं बहुत मुश्किल है) और ऐसा करने पर जो ख़ुशी जो आनंद मैं किश्तों में महसूस करता हूँ उसे आपको शब्दों समझाना तो असंभव है, पर आप इसी मैं मज़ा उठा सकते हैं की मैं खुश हूँ—-हालांकि मेरी ये ख़ुशी आपकी ख़ुशी की परिभाषा के नज़दीक भी नहीं भटकती। ये निराशा और दुखों से भरपूर ख़ुशी है जिसमे अनभिज्ञता का मीठा ज़हर नहीं घुला है। फ़िलहाल मैं ये आशा तो नहीं रखता की आपकी जो मुझसे आशायें बंधी हैं वो आपको पूरी होती नज़र आयें, पर इतना कह सकता हूँ की अपनी आगे आने वाली ज़िन्दगी को एक उदाहरण बनाकर मैं शायद आपको उस श्रेष्ट लक्ष्य से रूबरू करवाने मैं सफल ज़रूर हो पाऊँगा। परंतू उसे श्रेष्ठ लक्ष्य की प्राप्ति को आप एक सफल ज़िन्दगी का दर्जा देते हैं या असफल ज़िन्दगी का, तब ये आप पर निर्भर करेगा।
मनु