रुआंसा हृदय, वेदना भरा वो हर-एक पल
व्यापक था उन दिनों, मुझे भूला कर
निकल पड़ा था तू घर से, स्वायत्त !
पीठ के बल चरमराते गिरे, सपने निष्फल।
अकुलाहट की टीस तुझे भी छूई, मंद व असहाय,
तेरी अश्रुपूर्ण छवि, मुझे दूर लेजाती गाड़ी
के पिछले शीशे में उभरी, हॉस्टल के मैदान
के बाहर उस लम्बी पगडण्डी के दोनों छोर हम आये!
फिर धुन्दला गया सब, जो था यथार्थ, अणु,
गढ़ने लगा वीराना निरर्थक एकाकी कृतियाँ,
जिसमे मैं अकेला अग्रणी और विरोधी,
रोल अदा करूंगा, आत्मगत हो कहलाऊंगा, अनु !
तुझमे तो धरा रहा है साहस, अतिशय !
यथासमय संवेदना से ऊपर उठ, जीवन का
मूल्यांकन करके, पथ चुना तूने जटिल दूभर,
मैं अभागा, जगत-समीक्षा के विवर में फंसा, असमय !
बंद कमरे की ताक से मुझे एक-टक देखता, तेरा मुस्कुराता छायाचित्र,
मेरा अनुनय, मेरा अनुराग, लौट आने का, रहता निष्फल
कलरव सुनता दीवारों और दरवाज़ों का, मनता शोक,
डंठल सा दीखता मेरा बैट कहता, ले आऊंगा उसे, बस फेर दे मुझे, मेरे मित्र !
वर्ष बीते क्षणों भांति, जीवन ने करवट ली, बृहद् !
रस्ते फैल गए चौराहों से, प्रवास चल रहा मोड़दार,
किसी एक किनारे पर मिलकर बैठना, कब होगा संभव,
विचित्र शोचनीय स्थिति है, अनायास और भरपूर भ्रामक।
जीवन-समीक्षा का पड़ाव निकल चूका, शैशव सपने क्षत-विक्षत,
परन्तु, कदाचित किसी गुप्त दुनिया में, जहां पूंजीवाद ना है,
जहां श्रम तय करते सपने ना की संरक्षण, हम साथ हैं,
संसार के चलन के निरपेक्ष, छायाचित्र के परे, साथ हैं, कर शपथ !
उपेक्षित हूँ, पर निर्जीव नहीं, याद है वो महत्वाकांक्षाएं, भव्य !
जिनका डंका गूंजता था, मेरे लिए तेरे भी भीतर,
स्वछन्द नहीं किये हैं हार कर, ना ही बघार डाले हैं सपने वो,
बस लौ फड़फड़ा रही है सांय-वात में, तम में उजाला होगा, विजय !
– मनु