लम्बी सीधी खड़ी इमारतों के एक छोटे स्पाट घरोंदे में बंद,
अक़सर याद किया करता हूँ वो लकड़ी का मकान।
जिसमे गिरते-पड़ते स्कूल से भागकर पहुँचते थे,
जहां कमरे की खुली खिड़की ताका करती थी मैदान को,
आवाज़ आने की देर होती थी, के सारे काम काज भूल जाया करते थे।
खड़े सूरज की गर्मी बच्चों को नहीं जलाती थी तब,
ना ही काले होने का कोई ख़ौफ़ मंडराता था,
धूप में छाता तो शायद किन्ही अंग्रेज़ी मेमो की शोभा था।
मुसीबतें तब भी घेरें थी, और आज भी हैं,
परेशां तब भी हुआ करते थे, और आज भी हैं,
पर इनके माईनो में ज़मीन आसमां का फ़र्क़ था।
वो लकड़ी का मकान एक आशियाना था,
जहां कभी-कभार एक-आद थप्पड़, या ढीली-ढाली लताड़
के अलावा हर चीज़ का आराम रहता था।
रात की रोटी के बारे में बताओ कब सोचा,
शेर मुंह खोल के सुस्ता ले और निवाला खुदी पेट
का इशारा समझ लेने के बराबर था हमारा नसीब।
हाँ, उस हर एक लकड़ी के मकान में हम सब
नन्हे शेर ही तो रहा करते थे, पूरी छुटियाँ खाली पेट निकाल
दिया करते थे कंचों की बाज़ी पर, कहाँ उस वक़्त दवा-दारु
और डाइट प्लान के अधीन चलना पड़ता था।
सर्दियों मैं गर्म और गर्मियों मैं ठंडा रहने वाला वो मकान,
किसी तकनिकी मशीन से काम ना था,
रात को जब नींद ना आती, तब रोशनदान से
कमरे को रोशन करती चांदनी में ढून्ढ लेते थे साबू और चाचा चौधरी
के किस्से, कभी किसी दोस्त से दिया हुआ कमांडो ध्रुव का रोमांच भी पढ़ लेते थे।
सर्दियों की छुटियों की सुबह मकान की छत पर धुप सेकते हुए बीतती थी,
पड़ोस में रहने वाला वो लड़कपन का पहला प्यार
बाल खोले हुए धुप में आँखें मिन्ध्या कर खट्टा खाया करता था।
सरसों का तेल तब बदबूदार ना लगता था,
ना ही साबुन से बाल ड्राई हुआ करते थे,
इतना सोचने का वक़्त बहुत बाद मिला, शायद तब ज़िन्दगी जीने में
ज़्यादा व्यस्त थे और आज ज़िन्दगी काटने में।
याद है मुझे, एक बार ज़बरदस्त बारिश में मोहल्ले के
सभी नन्हे शेर एक साथ भीगे थे, और एक साथ ही सब ने ठहाका लगाया था,
अभी कुछ देर पहले उसी ठहाके ने जब मेरी जाग खोली, तो याद आन पड़ा
वो मैदान, गरजता आसमान, वो नन्हे शेर, आस पास के घरों से झांकते उनके माता-पिता,
और मेरा छोटा, लेकिन इस घरोंदे से भावना के माइनों में, बहुत विशाल,
मेरा वो लकड़ी का मकान।
September 8th, 2015
Ridiculous Man