मौक़ा ख़ास है, शामिल है जुबां पर
तेरा नाम जो वाकई में इम्तियाज़ है
अफ़सोस है ज़रूर, किन्ही ना गुज़रे लम्हों का
जो होते तो बरहक़ करता में मंज़ूर
इस मौक़े–ख़ास में तेरा याद आना आम है,
किसी आम मौक़े पर तेरा दफ़तन आ जाना याद है…
क्योँ ना गिला शिकवा करू तुझसे बता
मेरे हर ज़िन्दगी–इ–ज़ख्म का तू ही एक इलाज है
क्या कहूं इस दिन पर क्या शिकायत क्या मलालहै
बेंतेहान दुआओं में छुपा इतने लोगों का पयार है
हर रंज भूला देता में पर एक सवाल है बेपर्दा
तेरी आवाज़ सुनाई देना तो कोई और ही बात है