कभी कभी ख्यालों में
सोते–जागते कहीं खाबों में
ज़िक्र अकसर जो तेरा था हो जाता
कसम से, तू अब याद नहीं आता
कभी खाली सूने गुज़रते पलों में
निढाल बैठे ज़हन के खंडरों में
भूले भटके तू गुज़र जो था जाता
कसम से, तू अब याद नहीं आता
अरमानों की बिसात प रहूँ चढ़ा
पस्त हौसलों के बावजूद खड़ा
पर अफ़सोस चेहरा तेरा धुन्दला जाता
क्योँ ! क्योँ तू अब याद नहीं आता
बिखरे लम्हों को फिरसे संजोने में
गुमराह यादों के उस अंधेर कोने में
क्या गुंजाइश थी की मैं कुछ पाता
वाकई में, तू अब याद नहीं आता
कपकपाती साँसों की टीस में
सहसा होती दस्तक के बीच में
शक्ल ग़ायब है पर नाम हूँ दोहराता
पर फिर भी, तू अब याद नहीं आता