छेह का पहर!

छेह का पहर खड़का, मेरा दिल धड़का

हो ना हो आवाज़ है ये किसीकी, कोई मुसीबत के मारे की 

मुझे बुलाता है मदद के लिए, पर कहाँ, कोई अंदाजा नहीं

आवाज़ चीख में बदली, चीख कानो में गूंजती 

बैन करता है कोई ज़ोर से, पर मालूम नहीं किस ओर से

नज़र को में भगाता चारों तरफ, किसी का नामोनिशान नहीं 

कौन हो सकता है वो, जो देता है सुनाई, पर ना देता दिखाई 

सोच, सोचकर परेशान हो गयी, न जाने कितनी सुबह शाम हो गयी 

पर वो अदृश्य का अदृश्य ही है, मुझे बुलाता रहता हर वक़्त

समय ने रफ़्तार पकड़ी, मानो कहीं आग भड़की 

जिससे डरकर वक़्त भागता है, अपने पीछे सभी को लगाता है 

पर वो आवाज़ अभी तक मेरे पीछे है, डोर की तरह मुझे खींचे है 

सुइयों की तरह चुभती है, दर्द कम भयभीत ज़्यादा करती है 

में पूछ पूछ कर थक गया, सुन सुन कर पक गया

कह कहकर थम गया, की कौन हो तुम 

कहाँ हो तुम, क्योँ मुझे ही हो पुकारते 

इतने लोगों में मुझे ही क्योँ हो डराते 

थोड़ी देर का सन्नाटा, फिर आवाज़ हुई 

पर इस बार पास से, कहीं जान पहचान से

ताजुब है!

आज तक क्योँ ना सुन पाया, ये ख़्याल पहले क्योँ नहीं आया 

आवाज़ ने मेरा नाम लिया

ताजुब है!

ये उसने कैसे जान लिया, क्या में भी उससे वाकिफ़ हूँ 

नहीं नहीं! वरना मैं पहचान जाता, निश्चित ही जान जाता 

जब ऐसा कुछ नहीं, मैं उससे परिचित नहीं 

तो फिर वो कौन है?

गौर से सूना मैंने उसे, पहचाने का प्रयत्न किया मैंने उसे 

अकस्मात् एक छवि प्रकाश की, जो बंदी दिखती है अन्धकार की 

प्रत्यक्ष सामने आकर कड़ी हुई, मुझे पुकारती आवाज़ सुनाई दी 

परन्तु इस बार कहीं और से नहीं 

मेरे भीतर से!!

सब कुछ ठहर गया, मानो जम गया

यहाँ तक की वक़्त भी थम गया

मैं कमरे मैं बैठा, सिग्ररेट सुलगाता 

लिखने का मन बनाए, सोचे जाता, सोचे जाता!

कल्पना के पंखों के ज़रिये, उड़ान भरने को तैयार 

किस दिशा जाया जाए, हूँ परेशान 

सुझाव हर तरफ से मिलते, पर मदद ना करते 

उलटा गुमराह कर, हवा का रुख है बदलते 

अनोखी स्थिति है, नज़र एक जगह गड़ी है 

बीते वक़्त को, टटोलने के प्रयास में, भटक रही है

कहीं कुछ वहीँ से, मंत्र मिल जाए

समस्या का तोड़, कोई यन्त्र मिल जाए 

आखिरकार कहीं कुछ, कोने में छुपा दिख जाए 

पर सिग्ररेट का धुंआ, धुंद बनकर 

शायद हवा में है घुल रहा, घुल रहा और बड़ रहा 

सोचने की शक्ति को कम कर रहा 

वरना इतनी देर का क्या कारण भला 

पहले जितनी देर मन किया लिखने का 

कलम कागज़ पर बेजिझक, बिना रुके चला 

परन्तु सोच पर कहाँ कोई दुश्मन या दोस्त 

पहरे लगा सकता है, उसे रोक कर

एक जगह बिठा सकता है?

नहीं, नहीं कर सकता ये कोई, जितना जतन कर ले 

किसी और को तो दूर, खुद की सोच को भी 

नहीं रोक सकता है कोई!

ज़हन एक ख़ला है, जो ख़्यालों से भरा है 

उन ख़्यालों को कैद, नहीं करना चाहता मैं

इसलिए शब्दों के द्वारा, उन्हें आज़ाद करना चाहता हूँ मैं!

खुदी जवाब पा गया, अपने सवालों का

जिसे खोजता था हर जगह, वो मेरे ही भीतर ज़हन का

हिस्सा निकला!!

हक़ीकत से अनजान, हैरान परेशान 

दिमाग़ की दुविधा का कोई हल नहीं 

वो है ही नहीं, जो दे सकते थे उपाए 

पता नहीं कहाँ, किस दिशा में

आँखों से ओझल, छिपे बैठे हैं

यदि कहीं दिखे, तो जाने ना दूं 

कहाँ? यही तो पता नहीं, पूछने है कई सवाल 

जिनका उतर वही दे सकते हैं 

मैं जानता हूँ, आस लगाना बेकार है 

नहीं दिखेंगे वो, क्यूंकि जाग गए हैं वो 

उस स्वप्न से, जिसमे मैं फ़िलहाल खोया हुआ हूँ 

परेशान हूँ! पर निराश नहीं 

बल्कि ये सोच सोचकर, खुश होता हूँ 

की मेरा लक्ष्य भी वही है, जो सबका है 

और वहाँ निश्चित ही पहचूंगा मैं 

और तब, मैं अकेला ना रहूँगा!!

बस एक सोच है, शायद बेकार 

पर आती है ज़हन मैं बार बारबार बार 

लगातार!

हर शब्द का है अर्थ, पर क्या पता

सबको दिखता वो अलग, सुनता वो अलग!

जैसे हर रंग है अलग, अलग उसकी पहचान 

पर क्या पता, जो है मेरा सियाह 

वो हो किसी का श्वेत, पर हो उसका नाम सिर्फ़ एक!

सबका अपना एक अक्स है, उसकी अपनी एक शक्ल है

पर क्या पता, मुझे जो आईने में है दिखता 

किसी और के लिए अनजान हो 

पर उन दोनों का एक ही नाम हो!!

देह का जाना है असंभव, विचारों पर रोक नहीं 

चला जा रहा हूँ ऐसी अनजान जगह पर, जहां कोई और नहीं 

दृश्य दीखते हैं धुन्दले से, अजीब छवियाँ अधूरी सी

हो ना हो ये संकेत हैं, जो लेजायेंगे मुझे जाने कहाँ 

पर कहीं ना कहीं तो ज़रूर!

अनोखी बात है, यहाँ उजाला! वहाँ रात है

पर दिखता वहाँ सबकुछ, यहाँ कुछ भी नहीं

हूँ यहाँ का, पर वाकिफ़ हूँ वहाँ से

अवश्य है कोई रिश्ता, पिछले जनम का मेरा उस जहां से 

विचित्र बात है, मुझे याद है अभी भी 

ये कैसे मुमकिन है, लगता है वेहेम है 

या मेरे ख़यालों की है दुनिया यह, जिसमे अकसर आ जाता हूँ 

बिना देह के, क्यूंकि 

विचारों पर कोई रोक नहीं!!

सोच पर दीमक लगी, विचारों पर विराम

हो रहा है कायम!

होती है जब सहर, उमड़ आता है ऐसा कहर 

कर देता है दूषित, हर शक्स की जुबां 

निकलता है मानो विष, हर एक पहर!

निकलता है जब वो घर से

आँखों पर ओढ़े स्वार्थ की चादर, कानो के पर्दों पर 

चीखों का कोई मलाल ही नहीं!

दिल के दरवाजों पर होती दस्तकों का 

कुछ भी ख़्याल नहीं

हर कदम पर चाल बदलती, मतलब के हिसाब से ढलती

आत्मा अन्दर ही अन्दर है रोती, बिलकती, जलती 

पर वो अमानवीय काय 

ख़ाक ना होती!!

Ridiculous Man
Well I'm... A theatre actor, director and a writer... I've an avid interest in philosophy and often write my random take on different aspects of life... I love to write poems and play guitar!

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