रोज़ सुबह आती है, मुझे नींद के आग़ोश में पाती है
सूर्योदय कभी ना देख पाता हूँ, आज–आज करते–करते निराश रह जाता हूँ
उजालों में सांस लेने के बावजूद, अन्धकार से घिरा रह जाता हूँ
आँखें होते हुए भी, सच्चाई को अनदेखा कर रहा हूँ
सिर्फ नाम मात्र ही ज़िंदा हूँ, वरना घुट–घुट के मर रहा हूँ
भीतर क्रोध की ज्वाला है भड़कती, क्योंकि विचारों को दबाये रखता हूँ
भड़ास निकालूँ तो किस पर, इसी सोच पर दिमाग़ टिकाये रखता हूँ
कम्बख़त वक़्त कटता नहीं, नामुराद रुकता भी नहीं
कहने का तात्पर्य ये, कि मेरे हिसाब से ये चलता नहीं
छोड़ो! छोड़ो ना चले मेरे मुताबिक़, पर ये ज़्यादती क्योँ करता है
जब में चाहता हूँ इत्मीनान से, ये दगाह्बाज़ जल्दी क्योँ कटता है
बिना किसी कारण बेचैनी क्योँ घेरे है मुझे
परेशान करती है रोज़, चैन से जीने क्योँ नहीं देती है मुझे
अनगिनत सवाल खड़े हैं, जो नासूर बनकर ज़हन में गड़े हैं
जब इनका जवाब नहीं पता हूँ, इश्वर के अस्तित्व पर शक करने लग जाता हूँ
फिर सूर्य अस्त होने लगता है, उजाला भी अन्धकार में परिवर्तित होने लगता है
आँखों के आगे ये दृश्य चलता है, अन्धेरा आसमान को निगलता है
में वहीँ खड़ा नपुंसक कि भाँती, और कमज़ोर महसूस करता हूँ
रगों में जैसे सुर्ख लहू नहीं, कबूद विष के बहाव को महसूस करता हूँ
जब सागर सूर्य का दुश्मन बनता है, उसे नतमस्तक होने पर विवश करता है
मेरा अक्स साथ छोड़ने लगता है, मुझे और डर लगने लगता है
लेकिन ये क्या, सन्नाटा शान्ति में तब्दील होने लगा है
जिसे अन्धकार था समझता, वो था मेरा वेहेम लगने लगा है
इस बार पक्का इरादा है, नींद से मेरा दावा है
उसके माध्यम से सपने ज़रूर देखूंगा, परंतू अबकी बार, बार–बार
सूर्योदय ज़रूर देखूंगा! सूर्योदय ज़रूर देखूँगा!