बे–इन्तेहाँ सब्र के बाद, फरमान हुआ है ये जारी
तेरा ख़याल और ना होगा, ना होगी और तेरी तरफ़दारी!
आख़िर हद होती है रंज की, बेसब्र दिल का लिहाज़ तो कर
रिक्कत खा उन तमाम नज़रों पर, ढूँढती हैं जो तुझे दरबदर !
मजबूर सिसकियों को रहत दे, यूँ ना बिलावजेह उन्हें ज़ायर कर
तेरे आने की गुंजाइश है, ये तस्सली तो फ़िलहाल अदा कर !
तवारीख़ के पन्नो पर, इससे पहले की खौफ–ज़दा यादें बिखरें
आ इस मसले को आज, मिलकर अभी के अभी दफ़्न करदें !
गुज़रे लम्हों की दास्तान, अक्सर ख्यालों में दोहराया करती हैं
हर सहर की एहले– किरन, ये दर्दनाक हक़ीकत दरियाफ़त करती है !
ख़ाबे–जुस्तजू पूरी ना हुई, ज़िन्दगी के इस मुक़ाम पर
के अफ़सोस होता है मुझे, इस हसरते–नाक़ाम पर !