है सोच का सागर भी असमंजस में पड़ा
क्या कभी हो पायेगा इस शोषक समाज का भला?
स्वार्थ की धुंद में सुलझन का एक तट दिखाई तो दिया है
परन्तु इतिहास गवाह है की परोपकार आज तक निस्वार्थ हुआ है
दूसरों के तिल को भी बिल माना
अपने बिल समान दोष को भी गुण जाना
औरों के दोष पर ऊँगली तो उठायी
पर अपनी और संकेत करती तीन उंगलियाँ भी ना दिख पाई
हर पर्व हर त्यौहार हर दिवस को आये हैं हम हर्ष से मनाते
पर इनसे मिली शिक्षा को नित्य और हर क्षण हैं झुक्लाते
आज़ादी पा ली, पर उसका अर्थ आज तक ना जान पाए
भ्रष्ट आचरण और सोच से आज भी मुक्त ना हो पाए
अपनी ज़िम्मेदारी एक दिखावा बनकर है रह गयी
देशभक्तों की कुर्बानियां एक हक़ीकत होते हुए भी खो गयी
जो देश थे इस मिट्टी की तुलना से भी दूर
आज होना पड़ता है उन्ही के समक्ष हमें मजबूर
कभी कहलाई जाती थी ये वीरों की भूमि
आज हो गयी है अपने सब गुणों से सुनी
दायित्व पालन से विमुख हो गया है हमारा स्वभाव
ये सोच का परिवर्तन है ना की वक़्त का बदलाव, ना ही कलयुग का प्रभाव
हमारे कार्य दर्शाते हैं हमारी बीमारी को
वही बीमारी दिखलाती है हमारी कमज़ोरी को
मत बनो कमज़ोर इतना की पानी सर से ऊपर हो जाए
और ज़िन्दगी जीने से पहले ही जीना दुशवार हो जाए
इसलिए कर लो प्रण की बदलना है न ही अपने आप को
बल्कि प्रत्येक के स्वभाव को
ख़त्म करके रखना है अपने अन्दर बैठे दानव नाम के शख्स की शख्सियत को
बदल कर रखना है अपने अन्दर पनप रही गन्दी और तुच्छ नियत को
फिर मनाएंगे हर्षोल्लास से बदलाव की वो रात जशन की
परंतू फिलहाल है प्रतीक्षा, अभिलाषा और आवश्यकता
“एक विध्वंस की, एक विध्वंस की!!”