ज़िन्दगी–ऐ–हसीं को तू आ शौक़ फ़रमा
आख़िर तेरी ग़ुमनामी में क्या रखा है,
ख़ाबे–ऐ–दिल को तू कर दे बयान
बेफ़िजूल इस मनमानी में क्या रखा है!!सही ग़लत के ये फ़लसफ़े मत मान
आयते–ऐ–पाक़ में क्या रखा है,
बुज़ू कर वापस अपने घर आ
ख़ुदा के दर में क्या रखा है!!दिल–ऐ–बेचैन से तू बाबस्ता है
इस बेक़रारी में क्या रखा है,
फ़ासल–ऐ–दरमियान और ना बढ़ा
तनहा जीने में क्या रखा है!!सियाह रात में ही मिलने आ
सहर–ऐ–नज़र में क्या रखा है,
बेबाक़ हो मेरे ख़यालों में आ
इस कमज़र्फ़ हक़ीक़त में क्या रखा है!!