अब शूमयत से बिलकुल ना रहोगे अनजान
करवाता हूँ शूम रातों से तुम्हारी पहचान!
सियाह रात में शहाब की भी क्या अहमियत
जब ख़ुद महताब की फ़ितरत में आ जाए बेहमियत!
वक़्त भी सरमस्त हुआ जाता इस सियाही में
झलकती है साफ़ शोखी उसकी गोयाई में!
सुर्ख लहू भी कबूद दिखता अँधेरे में
निग़ाह भी आ जाती वेहमी घेरे में!
दफ्फ़तन सन्नाटे कहकहा लगाने लगते
खौफ़नाक कियासी चेहरे मगज़ पर छाने लगते!
जब ख्यालों में इब्लीस की परछाई है झूमती
हर लम्हे में डरी हुई सिसकी है गूंजती!
सरगोशी करती हवा कानो में फिर बैन करती
हलक में दबी सांस रुकने की गुजारिश करती!
गुलाम बने हाथ पाँव छटपटाने लगते
बैमानी कर ख़ुदी कोलाहल मचाने लगते!!