आईने का रहस्य बहुत पेचीदा है, इसमें जो अक्स है झलकता वो जिंदा है
तुम्हारा हुलिया बयान है करता, इसलिए उसके क़द्रदान हो तुम
लेकिन उस दुनिया के हमशक्ल के, वजूद से अनजान हो तुम
तुम्हारे उलटे सीधे को वो सीधा उल्टा बतलाता है,
जब तक ख़ामोश रहते हो वो बेज़ुबां कहलाता है
तुम्हारे लब्जों को दोहराना उसकी एक चाल है,
तुम्हारी बेख़बर फ़ितरत ही उसकी ढाल है
जाने अनजाने में अपने राज़ उसके आगे खोल देते हो तुम,
बावजूद इसके तन्हाई से अकसर घिरे रहते हो तुम
उसपर पीठ कर तो ली, पर क्या भरोसा वो ताक नहीं रहा,
तुमारी नज़र हटते ही क्या पता वो वहाँ नहीं रहा
तुम क्या सोचते हो, गर तुम उस आइने में झाँक नहीं रहे,
उसकी अन्दर की दुनिया के नुमाइंदे जाग नहीं रहे?
ग़लतफहमी है तुम्हे, स्थिर समझते हो जिन्हें,
सांस लेते हुए साए हैं, जो अपना वजूद तुमसे पाए हैं
तुम समझते हो उसे अपना हमसाया,
क्यूंकि गौर से ना देखि तुमने उसकी काया
हिमायती मत कहो उसे अपना तुम,
तुम्हारी नज़र हटते ही हो जाता है वो ग़ुम
आँखों पर से सपनो के परदे गिरा कर देखो,
एक बार उसकी मौजूदगी को मान कर देखो
हर फ़लसफ़ा साफ़ नज़र आयेगा, आइना शब्द ज़हन से हटा कर तो देखो
ऐसी शूमायत से भरी खला है वो, जहां किसी ख़ानाबदोश की तरह थककर खड़ा है वो
तुम्हारी ख्वाहिशों की रूबरू तजवीज़ है वो,
तुम्हारे अरमान को ज़ाहिर करती तस्वीर है वो
उस दुनिया की ख़ामोशी, चीख़–चीख़ कर कहा है करती,
मैं हूँ! मैं हूँ! इस राज़ का ख़ुलासा किया है करती!!